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राजपूत व EBC समुदाय को सबसे बड़ी हिस्सेदारी: National Democratic Alliance ने बिहार के 243 उम्मीदवारों में सामाजिक समीकरण पर लगाई दांव

राजपूत व EBC समुदाय को सबसे बड़ी हिस्सेदारी: National Democratic Alliance ने बिहार के 243 उम्मीदवारों में सामाजिक समीकरण पर लगाई दांव

📰 राजपूत और EBC बने NDA की रीढ़ — बिहार चुनाव में ‘सामाजिक समीकरण’ पर बड़ा दांव

बिहार की मिट्टी से राजनीति की जो गंध उठती है, वो हमेशा जात और जनाधार के मिश्रण से बनती है। अब 2025 की विधानसभा चुनावी बिसात पर National Democratic Alliance (NDA) ने एक बार फिर से वही पुरानी लेकिन कारगर चाल चली — राजपूतों और EBC (अत्यंत पिछड़े वर्ग) पर भरोसा जताते हुए उम्मीदवारों की सूची तैयार की है।

गठबंधन की इस लिस्ट में इन दोनों समूहों की सबसे बड़ी हिस्सेदारी देखी गई है, जो साफ दिखाती है कि NDA ने इस बार ‘सामाजिक पूंजी’ को अपनी सबसे बड़ी ताकत बनाने का इरादा कर लिया है।

⚖️ सामाजिक गणित की चालें — कौन कितना भारी?

बिहार की 243 सीटों में NDA की ओर से जारी उम्मीदवारों की सूची के मुताबिक:

EBC (अत्यंत पिछड़े वर्ग) को सबसे ज़्यादा टिकट मिले हैं — 35 से ज़्यादा उम्मीदवार इस तबके से हैं।

राजपूत समुदाय को लगभग 30 सीटों पर मौका मिला है, जिससे NDA ने ‘परंपरागत सवर्ण शक्ति’ को साथ जोड़े रखने की कोशिश की है।

वहीं OBCs (पिछड़ा वर्ग) और ब्राह्मण, भूमिहार, वैश्य जैसे उच्च जाति समूहों को भी सीमित लेकिन रणनीतिक सीटें मिली हैं।

महिलाओं को मात्र 15 प्रतिशत टिकट — यानी 36 सीटें — मिली हैं।

मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या सिर्फ 5 है, जो NDA के अल्पसंख्यक दृष्टिकोण पर सवाल उठाती है।

ये आंकड़े दिखाते हैं कि NDA ने अपने जातीय समीकरण को ‘संख्या और निष्ठा’ के मेल से तैयार किया है। EBC वोट बैंक की संख्या बड़ी है, लेकिन राजपूतों की स्थानीय पकड़ और प्रभाव गहरा है। यही संतुलन NDA की रणनीति का केंद्र है।

🧭 EBC और राजपूत: दो ध्रुव, एक ताकत

EBCs (Extremely Backward Classes) बिहार की आबादी का करीब 28–30% हिस्सा हैं। यह वह वर्ग है जो राजनीति में लंबे समय तक प्रतिनिधित्व के लिए संघर्ष करता रहा है। NDA का उन्हें टिकट देना सिर्फ वोट बैंक का सौदा नहीं, बल्कि एक संदेश है — कि “हम तुम्हारी हिस्सेदारी को पहचानते हैं।”

वहीं राजपूत समुदाय बिहार की पारंपरिक सत्ता संरचना में हमेशा से एक मजबूत कड़ी रहा है। इनकी जमीनी पकड़, स्थानीय प्रभाव और संसदीय अनुभव NDA के लिए हमेशा पूंजी रहे हैं। BJP और JDU दोनों के लिए राजपूतों का समर्थन चुनावी सफलता की रीढ़ साबित हुआ है।

NDA ने इन दोनों वर्गों को एक साथ जोड़कर एक ‘क्रॉस-कास्ट एलायंस’ बनाने की कोशिश की है — जहाँ ऊँची जातियों की राजनीतिक ताकत और EBCs की जनसंख्या — दोनों NDA को सामाजिक संतुलन देती हैं।

💡 नीतीश–मोदी की संयुक्त रणनीति का असर

यह रणनीति किसी एक पार्टी की नहीं, बल्कि पूरे गठबंधन की सामूहिक सोच है।

नीतीश कुमार लंबे समय से EBC राजनीति के केंद्र में रहे हैं; उनका प्रशासनिक मॉडल इन्हीं वर्गों को साधने में सफल रहा है।

भाजपा, दूसरी ओर, पारंपरिक सवर्ण वोटों पर आधारित रही है, खासकर राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण और वैश्य समाज पर।

दोनों के मेल से बनी NDA की यह सूची एक तरह से ‘दो सामाजिक स्तंभों का गठबंधन’ है — एक तरफ सत्ता के परंपरागत वारिस (राजपूत), दूसरी ओर सत्ता की नई भूख (EBC)।

🔍 आंकड़ों में दिखती राजनीति की सच्चाई

राजनीति भावनाओं से चलती है, पर चुनाव संख्याओं से तय होते हैं।
243 उम्मीदवारों के बीच NDA की टिकट-वितरण तालिका कुछ यूँ है:

सामाजिक समूहअनुमानित उम्मीदवारप्रतिशत हिस्सेदारी
EBC35+~14%
राजपूत30+~12%
OBC25–28~11%
भूमिहार/ब्राह्मण/वैश्य40+~17%
महिला उम्मीदवार36~15%
मुस्लिम उम्मीदवार5~2%
अन्य वर्गशेष~29%

ये आँकड़े NDA के “सामाजिक संतुलन” की कहानी खुद बयां करते हैं।

🧩 क्या यह समीकरण वाकई काम करेगा?

सवाल यही है — क्या जातीय गणित वोटों में तब्दील होगा?
बिहार की राजनीति में कई बार ऐसा हुआ है कि जातीय आधार पर बनाई रणनीति ने अपेक्षित परिणाम नहीं दिए। RJD और महागठबंधन (EBC-MBC-Yadav-Muslim) का ब्लॉक अभी भी कई इलाकों में मज़बूत है।

अगर NDA EBC को केवल टिकट देकर नहीं, बल्कि ‘सत्ता के हिस्से’ की गारंटी देकर साथ रख पाती है, तो यह बड़ा गेम-चेंजर साबित हो सकता है।

🚩 विपक्ष पर दबाव

NDA की इस चाल के बाद अब विपक्ष — खासतौर पर RJD-Congress गठबंधन — पर दबाव बढ़ गया है।
तेजस्वी यादव का पूरा फोकस Yadav-Muslim-OBC वोट बैंक पर है, लेकिन अगर EBC NDA की तरफ खिसकता है, तो महागठबंधन को नुकसान होना तय है।

वहीं राजपूत वोटों में भी अगर NDA एकजुटता बनाए रखता है, तो विपक्षी कैंप में मतों का बिखराव निश्चित है।

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⚔️ चुनावी जंग का अर्थशास्त्र और मानसशास्त्र

बिहार की राजनीति सिर्फ जात-पात नहीं, बल्कि आत्म-सम्मान और ‘प्रतिनिधित्व’ का खेल है।
हर वर्ग चाहता है कि उसका आदमी सत्ता के केंद्र में हो। NDA की रणनीति इसी मानसिकता को भुनाती है।
यह एक ‘नैरेटिव-शिफ्ट’ है — जहाँ EBC को सिर्फ वोटर नहीं, बल्कि ‘निर्णायक शक्ति’ के रूप में पेश किया जा रहा है।

🗳️ आगे की तस्वीर

अब जब उम्मीदवारों की घोषणा हो चुकी है, तो सारा खेल जमीनी प्रचार, गठबंधन-संबंध और स्थानीय समीकरणों पर टिकेगा।
अगर NDA अपने जातीय गठबंधन को वोटिंग डे तक एकजुट रख सका, तो उसकी स्थिति बेहद मजबूत होगी।
पर अगर EBC या राजपूत गुटों में असंतोष पनपा, तो विपक्ष को मौके मिल सकते हैं।

राजनीति आखिर वही पुराना खेल है — जो भावनाओं को संख्याओं में और निष्ठा को सीटों में बदल देता है।

🔚 निष्कर्ष

NDA की उम्मीदवार सूची एक साफ संदेश देती है —

“हम अपने पारंपरिक वोट बैंक को बचाएंगे और नए वोट बैंक बनाएंगे।”

राजपूतों की पुरानी ताकत और EBC की नई उम्मीदों को एक साथ लाकर गठबंधन ने बिहार की राजनीति को फिर से जातीय संतुलन की राह पर डाल दिया है।

अब देखना यह होगा कि यह दांव कितना चलता है — क्या यह जीत का गणित बनेगा, या फिर सिर्फ कागज़ी समीकरण रह जाएगा।
राजनीति की यह कहानी लंबी है, लेकिन बिहार जानता है — हर चुनाव सिर्फ सत्ता का नहीं, बल्कि पहचान और सम्मान का होता है।


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