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आरबीआई ने बैंक अधिग्रहण वित्तपोषण पर लगाए क़र्ज़े हटाए; अर्थव्यवस्था को मिलेगा बूस्ट, बोले गवर्नर

आरबीआई ने बैंक अधिग्रहण वित्तपोषण पर लगाए क़र्ज़े हटाए; अर्थव्यवस्था को मिलेगा बूस्ट, बोले गवर्नर

भारतीय बैंकिंग जगत में आज एक नया अध्याय खुल रहा है। उस अध्याय का नाम है – सक्रिय अधिग्रहण वित्तपोषण (acquisition finance) के लिए बैंकों को मिली आजादी। Reserve Bank of India (आरबीआई) के गवर्नर Sanjay Malhotra ने इस बात की पुष्टि की कि अधिग्रहण वित्तपोषण पर बैंकिंग कर्ज़ के मामलों में लगाई गई पुरानी बंदिशें हटा दी गई हैं, ताकि अर्थव्यवस्था को नया उजाला मिल सके। 

क्या हुआ है बदलाव?

रणनीतिक दृष्टि से देखें तो, बैंक लंबे समय से कंपनियों द्वारा मर्जर और अधिग्रहण (M&A) के लिए वित्तपोषण प्रदान नहीं कर पा रहे थे क्योंकि आरबीआई ने पहले भरोसे के आधार पर ऐसे कर्ज़ों पर सख्त नियंत्रण रखा था। लेकिन अब:

बैंक अब अधिग्रहण के लिए वित्तपोषण कर सकते हैं — अर्थात् कंपनियां अब बैंकों से कर्ज़ लेकर दूसरे उपक्रमों या कंपनियों के शेयर या अधिग्रहण की क्रियाएँ कर सकती हैं।  

अधिग्रहण वित्तपोषण में बैंक द्वारा दिए जाने वाले कर्ज़ की सीमा तय की गई है — बैंक एक पूरे डील का अनुमानित 70 % तक फंड कर सकते हैं, बचे हुए 30 % को अधिग्रहितकर्ता (acquirer) को अपने संसाधनों से देना होगा। 

अधिग्रहण के बाद बैलेंस शीट में दिए गए कर्ज़-इक्विटी अनुपात (Debt : Equity ratio) की सीमा तय की गई है — जैसे 3:1 ताकि बैंकिंग सिस्टम पर अधिक दबाव न पड़े।  

बैंकिंग संस्थाओं को अधिग्रहण वित्तपोषण के लिए बोर्ड-स्वीकृत नीति बनानी होगी जिसमें जोखिम मूल्यांकन, निगरानी, एंड-यूज़ (end-use) की जांच और सुरक्षा (collateral) का प्रावधान हो। 

बैंक की पूँजी (Tier-1资本) के अनुपात में अधिग्रहण वित्तपोषण और पूँजी-बाजार जोखिम को सीमित करने के लिए प्रस्तावित टेक्निकल दिशानिर्देश दिए गए हैं।  

क्यों यह महत्वपूर्ण है?

इस बदलाव के पीछे एक सख्त लेकिन स्पष्ट विचार है — भारत की वास्तविक अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाना, बैंकिंग सिस्टम को सक्रिय बनाना, और घरेलू कंपनियों को विदेशों या महँगे विदेशी ऋण स्रोतों पर निर्भर रहने से बचाना। गवर्नर मल्होत्रा ने कहा कि “हमारे बैंकिंग संस्थानों को मामला-दर-मामला निर्णय लेने की आजादी मिलनी चाहिए — एक साइज-फिट-सब नियम नहीं”।  

यह बदलाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि:

मर्जर और अधिग्रहण अब एक सामान्य रणनीति बन चुके हैं जहाँ कंपनियाँ स्केल-अप, क्षैतिज एकीकरण, वर्टिकल इन्टीग्रेशन या नए क्षेत्रों में प्रवेश कर रही हैं। बैंक यदि इस प्रक्रिया का हिस्सा बनें, तो वित्तपोषण की लागत कम हो सकती है, जोखिम नियंत्रण बेहतर हो सकता है।

बैंकिंग क्रेडिट की दिशा में यह एक संकेत है कि बैंक सिर्फ पारंपरिक क्रेडिट (वर्किंग कैपिटल, निवेश ऋण) तक सीमित नहीं रहेंगे बल्कि कॉर्पोरेट स्ट्रक्चर में हिस्सेदारी लेने वाले अधिग्रहण वित्तपोषण में भी भाग ले सकते हैं।

इससे बैंकिंग सैक्टर के विकास-वित्त (growth-finance) हिस्से को बल मिलेगा, कंपनियों को उधारी देने का विकल्प बढ़ेगा, जो अंततः अर्थव्यवस्था में निवेश, उत्पादन, रोजगार और बाजार-संघन को बढ़ावा देगा।

चुनौतियाँ और सावधानियाँ

हाँ — इस राह पर चलते समय कुछ “लेकिन” भी हैं, झूठी उम्मीदें नहीं बल्कि यथार्थ हैं।

अधिग्रहण वित्तपोषण inherently जोखिमभरा होता है क्योंकि इसमें लक्षित कंपनी का कारोबार, एसेट्स, मैनेजमेंट और समेकन (integration) का जोखिम शामिल होता है। बैंक को उचित सुरक्षा (collateral), पोस्ट-मर्जर निगरानी और जोड़-तोड़ की योजना सुनिश्चित करनी होगी।

अगर बैंक कमजोर अधिग्रहितकर्ता को फंडिंग देता है, तो बैंक के बैलेंस शीट पर दबाव बढ़ सकता है — इसलिए बैंक की मंजूरी, जोखिम प्रबंधन और निगरानी बेहद महत्वपूर्ण होगी।

जबकि नियम ढीले हुए हैं, लेकिन बैंक को अभी भी नीति बनानी होगी, जोखिम-वज़न (risk weights) देखनी होगी और बैंकिंग प्रणाली को स्थिर रखने वाले उपायों (प्रावधान, आरक्षित निधि, आदि) को बनाए रखना होगा। गवर्नर ने स्पष्ट किया कि “हमारे पास जोखिम-वजन, प्रावधानों के नियम, काउंटर-साइकलिक बफर जैसे उपकरण मौजूद हैं”। 

इस व्यवस्था को लेकर अभी ड्राफ्ट दिशानिर्देश जारी हैं और सार्वजनिक परामर्श चल रहा है। नियम-कानून जब लागू होंगे तभी पूरी तस्वीर सामने आएगी।  

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अर्थव्यवस्था पर असर

इस कदम का प्रभाव सीधा-सीधा असल अर्थव्यवस्था तक पहुँचेगा — न कि सिर्फ बैंक बैलेंस शीट तक। ऐसे कुछ प्रमुख असर हैं:

कंपनियों को अधिग्रहण के लिए नया पूँजी स्रोत मिलेगा, जिससे वे विस्तार कर सकेंगी, नए बाजार में प्रवेश कर सकेंगी, वर्टिकल/हॉरिज़ॉन्टल एकीकरण कर सकेंगी।

हिसाब-किताब बेहतर होगा — बैंकिंग संस्थान सक्रिय होंगे, क्रेडिट प्रवाह में गति आएगी। इससे निवेश-उत्पादन-रोजगार की प्रक्रिया तेज हो सकती है।

वित्तीय बाजारों और बैंकिंग व्यवस्था में विस्तार आएगा — अधिग्रहण वित्तपोषण का विकल्प मिलना, बैंकिंग सिस्टम की क्षमताओं को विस्तारित करेगा।

घरेलू कंपनियों को विदेशी ऋण या महँगे निजी इक्विटी विकल्पों पर कम निर्भर होना पड़ेगा — इससे विदेशी मुद्रा जोखिम, उच्च ब्याज जोखिम कम होंगे।

बैंकिंग प्रणाली में विविधता बढ़ेगी — बैंक केवल परम्परागत ऋण देने वाले संस्थान नहीं रहेंगे बल्कि रणनीतिक वित्तपोषण-साथी बनेंगे।

आगे क्या देखना है

हम आगे यह देखेंगे कि:

आरबीआई द्वारा यह कौन-कौन सी बैंकें इस व्यवस्था में पहले कदम रखेंगी, और उनकी प्रक्रिया कैसी होगी।

अधिग्रहण वित्तपोषण में कौन-से सेक्टर्स को सबसे ज्यादा लाभ होगा — उदाहरण-स्वरूप टेक्नोलॉजी, ऊर्जा, उपभोक्ता वस्तुएँ, इंफ्रास्ट्रक्चर।

बैंकिंग जोखिम कैसे प्रबंधित होगी — बैंक कैसे सुरक्षा लेते हैं, कैसे पोस्ट-मर्जर इंटीग्रेशन की निगरानी करेंगे।

बैंक क्रेडिट ग्रोथ पर क्या असर पड़ेगा — उद्यमों का विस्तार होगा या बैंकिंग प्रणाली पर अतिरिक्त दबाव बनेगा।

इस नीति के चलते कॉर्पोरेट संरचना (कॉर्पोरेट कंसॉलिडेशन) में क्या बदलाव दिखेंगे।


Note: Content and images are for informational use only. For any concerns, contact us at info@rajasthaninews.com.

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