यूपी बीजेपी में साजिश या सिर्फ भूल? – उपमुख्यमंत्रियों ने Ayodhya Deepotsav में न देना किया रुचि, पार्टी में हलचल
- byAman Prajapat
- 24 October, 2025
उत्तर प्रदेश की राजनीति में तब हलचल मची जब राज्य के दो उपमुख्यमंत्रियों — ब्रजेश पाठक और केशव प्रसाद मौर्य — ने अचानक Ayodhya Deepotsav में हिस्सा नहीं लिया। यह आयोजन अयोध्या में राज्य सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर किया गया था और इसमें मुख्य रूप से मुख्यमंत्री Yogi Adityanath उपस्थित थे।
क्या हुआ?
आयोजन के विज्ञापन और प्रचार सामग्री में दोनों उपमुख्यमंत्रियों के नाम नहीं थे। प्रचार में मंत्री सूर्यप्रताप शाही और जयवीर सिंह का नाम सामने आया, पर जैसे ही उपमुख्यमंत्रियों का नाम नहीं जुड़ा, उन्होंने कार्यक्रम से नाम वापस ले लिया।
सूत्रों का कहना है कि विभागीय (टूरिज्म व सूचना विभाग) गड़बड़ी थी — या तो सूचना नहीं दी गई, या बैठने की व्यवस्था और कार्यक्रम में भूमिका पहचान में नहीं थी।
मौर्य के मामले में कहा गया कि उनका बिहार के चुनाव-मुहिम में व्यस्त होना कारण था, पर पार्टी के अंदरूनी लोग इसे सार्वजनिक प्रतीकात्मक उपेक्षा के रूप में देख रहे हैं।
राजनीतिक महत्व
यह बात सिर्फ “दो नेता कार्यक्रम नहीं गए” तक सीमित नहीं है। इसके पीछे बड़ी दड़ीकरणीय बातें हैं:
जब उपमुख्यमंत्रियों को प्रमुख कार्यक्रमों से बाहर रखा जाए, तो यह संकेत देता है कि उनकी राजनीतिक भूमिका/पहचान कमजोर पड़ रही है या उनसे जुड़ी फील्ड में असंतोष है।
पार्टी के समक्ष विधानसभा-बायोपोल्स, लोकसभा चुनाव आदि बड़ी चुनौतियाँ हैं। इस तरह की उपेक्षा या विभाजन छवि को नुकसान पहुँचा सकता है।
मामला यह भी है कि भाजपा जिस तरह से संगठन-सरकार के बीच संतुलन बनाए रखती है, यहां लगता है वह संतुलन थोड़ा डिस्टर्ब हुआ है — क्योंकि आरोप है कि प्रशासन (ब्यूरोक्रेसी) ने उपेक्षित रूप से योजना बनाई।
ब्यूरोक्रेसी और पार्टी का टकराव
पर सिर्फ नाम-नहीं-दिखे लेने की बात नहीं है। यह मामला दिखाता है कि पार्टी-नेता और प्रशासनिक मशीनरी में संवाद कमी है।
आयोजक विभागों के बीच जिम्मेदारी का बंटवारा बताया गया है: टूरिज्म विभाग आयोजन के लिए था, सूचना विभाग विज्ञापन के लिए। दोनों पक्ष दोष दे रहे हैं।
इस तरह की ‘प्रोमोशनल सामग्री’ में बड़े नेताओं का नाम होना या न होना बहुत मायने रखता है — इससे नेता मूल्यांकन करते हैं कि उन्हें भूमिका कितनी दी जा रही है।
यह छवि भी सामने आई है कि “पार्टी बड़ी है सरकार से” जैसे संकेत उपमुख्यमंत्रियों द्वारा दिए गए पिछले वक्तव्यों के बाद यह घटना और ज्यादा संवेदनशील बन गई है।
क्या बिगड़ रहा है?
हां, कुछ बातें चिंताजनक हैं:
संगठन-सरकार के बीच ‘इकोसिस्टम’ में खटास देखने को मिल रही है। यह लंबे समय तक ठीक नहीं रहेगा क्योंकि यदि नेता खुद को उपेक्षित महसूस करें तो खामोशी के बाद असंतोष सार्वजनिक हो सकता है।
सार्वजनिक कार्यक्रम में प्रमुख नेताओं की उपस्थिति राज्य-पार्टी छवि के लिए महत्वपूर्ण है। जब वो नहीं जाते — खासकर ऐसे उत्सव जो जनभावना से जुड़े हैं — तो विपक्ष को इसका मौका ही मिल जाता है।
इस तरह की घटनाएँ वोट बैंक, स्थानीय नेता-संतुष्टि, कार्यकर्ता मनोबल पर असर डाल सकती हैं।

क्या यह विभाजन है?
यह कहना ठीक नहीं होगा कि यह खुला ‘विभाजन’ है, लेकिन संकेत हैं कि कुछ अंदरूनी असंतोष है।
पार्टी नेताओं का कहना है कि यह केवल “प्रचार सामग्री भूल” है, “अनिच्छा नहीं”।
उपमुख्यमंत्रियों का कहना है कि उनका व्यस्त कार्यक्रम था और आखिरी-पल में बदलाव हुआ।
फिर भी, मीडिया और विपक्ष इसे बड़ी घटना के रूप में देख रहे हैं — तस्वीर में खोट दिख रही है।
भविष्य में क्या-क्या देखने योग्य है?
आने वाले समय में दोनों नेताओं की भूमिका, उनके क्षेत्रीय संतुलन, और पार्टी में उनका स्थान देखने योग्य होगा।
पार्टी के भीतर कार्यकर्ता एवं क्षेत्रीय नेता इस घटना पर कैसे प्रतिक्रिया देते हैं, यह भी मायने रखेगा।
यदि ऐसे मामले बढ़ते हैं, तो आगामी चुनावों में संगठनात्मक खामियों का प्रभाव पड़ सकता है।
आयोजनों में विभागीय समन्वय और नामांकन-प्रचार की प्रक्रिया में सुधार की उम्मीद है — जिसकी कमी इस बार सामने आई है।
निष्कर्ष
तो दोस्त, सच यह है कि सिर्फ एक कार्यक्रम से नहीं बल्कि एक संकेत से सियासी हवा बदल सकती है। यह कोई बड़ी लड़ाई-झगड़ा अभी खुलकर नहीं हुई, लेकिन चिड़ है — वो चिड़ जो तब होती है जब आप “मैं भी हूं” कहना चाहते हो पर नाम नहीं आता।
अगर Bharatiya Janata Party ने अभी इस चिड़ को सही समय पर संभाला नहीं, तो आगे उसे धड़कन महसूस होगी — खासकर तब जब चुनाव आने वाले हों। असल में, यह मामला सिर्फ आयोजन छोड़ जाना नहीं है; यह दिखाता है कि राजनीति में नोटिस और सम्मान कितने मायने रखते हैं।
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जीणमाता मंदिर के पट...
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